(1)
माँ से बढ़कर कोई देवता नहीं है।
(2)
पिता का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि
पुत्र को अच्छी से अच्छी शिक्षा दे।
(3)
एक गुणवान पुत्र सैंकड़ों मूर्ख
पुत्रों से अच्छा है। एक ही चन्द्रमा अन्धकार
को नष्ट कर देता है, किन्तु हजारों तारे ऐसा
नहीं कर सकते।
(4)
दुष्टों तथा काँटों को या तो जूतों
से कुचल दो या उनके रास्ते से ही हट जाओ।
(5)
जिसके पास धन है, उसके अनेक मित्र, भाई बन्धु और रिश्तेदार
होते हैं।
(6)
क्रोध यमराज के समान है, उसके कारण मनुष्य मृत्यु की गोद में चला जाता है। तृष्णा वैतरणी नदी की तरह है जिसके कारण मनुष्य को सदैव कष्ट उठाने पड़ते हैं। विद्या कामधेनु के समान है । मनुष्य अगर भलीभांति शिक्षा प्राप्त करे को वह कहीं भी और कभी भी फल प्रदान कर सकती है।
(7)
संतोष नन्दन वन के समान है। मनुष्य
अगर अपने अन्दर उसे स्थापित करे तो उसे वैसे ही सुख मिलेगा जैसे नन्दन वन में
मिलता है।
(8)
लक्ष्मी, प्राण, जीवन, शरीर सब कुछ चलायमान है। केवल धर्म ही स्थिर है।
(9)
एक गुणवान पुत्र सैंकड़ों मूर्ख
पुत्रों से अच्छा है। एक ही चन्द्रमा अन्धकार
को नष्ट कर देता है, किन्तु हजारों तारे ऐसा
नहीं कर सकते।
(10)
दुष्ट के सारे शरीर में विष होता है।
(11)
अन्न, जल
तथा सुभाषित ही पृथ्वी के तीन रत्न हैं। मूर्खों ने व्यर्थ ही पत्थर के टुकड़े को
रत्न का नाम दिया है।
(12)
सोने में सुगन्ध, गन्ने में फल और चन्दन में फूल नहीं होते।
(13)
विद्वान धनी नहीं होता और राजा
दीर्घजीवी नहीं होते।
(14)
समान स्तर वालों से मित्रता शोभा
देती है।
(15)
कोयल का रूप उसका स्वर है। पतिव्रता
होना ही स्त्रियों की सुन्दरता है।
(16)
धर्म का उपदेश देनेवाले, कार्य-अकार्य, शुभ-अशुभ को बतानेवाले इस नीतिशास्त्र को पढ़कर जो सही रूप में इसे जानता है, वही श्रेष्ठ मनुष्य है।
(17)
मूर्ख शिष्य को पढ़ाने से, उपदेश देने से, दुष्ट स्त्री का भरण-पोषण
करने से तथा दु:खी लोगों का साथ करने से
विद्वान् व्यक्ति भी दु:खी होता है!
(18)
जिसके घर में माता न हो और स्त्री
व्यभिचारिणी हो, उसे वन में चले जाना चाहिए, क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं।
(19)
दु:खी का पालन भी सन्तापकारक ही होता
है। वैद्य ‘परदु:खेन तप्यते’ दूसरे के दु:ख से दु:खी होता है।
अत: दु:खियों के साथ व्यवहार करने से पण्डित भी दु:खी होगा।
(20)
दुष्ट पत्नी, शठ मित्र, उत्तर देनेवाला सेवक तथा
सांपवाले घर में रहना, ये मृत्यु के कारण हैं।
इसमें सन्देह नहीं करना चाहिए।
(21)
विपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा
करनी चाहिए। धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी
चाहिए। किन्तु अपनी रक्षा का प्रश्न सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो भी नहीं चूकना चाहिए।
(22)
आपत्ति काल के लिए धन की रक्षा करनी
चाहिए लेकिन धनवान को आपत्ति क्या
करेगी
अर्थात् धनवान पर आपत्ति आती ही कहाँ है ? तो प्रश्न उठा कि लक्ष्मी तो चंचल होती है,
पता नहीं कब
नष्ट हो जाए तो फिर यदि ऐसा है तो कदाचित् संचित धन भी नष्ट हो सकता है।
(23)
जिस देश में सम्मान न हो, जहां कोई आजीविका न मिले,
जहां अपना
कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहां विद्या-अध्ययन
सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए।
(24)
जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में
मोती उत्पन्न नहीं होता, सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष
सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
(25)
झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और निर्दयता - ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों को स्त्रियों का स्वाभाविक गुण मानते
हैं। हालाँकि वर्तमान दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा
जा सकता है।
(26)
भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, सुंदर स्त्री के साथ
संसर्ग के लिए कामशक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
(27)
चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है,
जिसकी पत्नी
आज्ञा के अनुसार आचरण करती है और
जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह
संतुष्ट रहता है। ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।
(28)
चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया
जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो।
(29)
जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई
है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के
समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।
(30)
चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र
के संबंद में भी पूरा विश्वास नहीं करना
चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
(31)
चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
(32)
चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
(33)
चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार
होता है। इसलिए माता-पिता का
कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे
मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
(34)
वे माता-पिता अपने बच्चों के लिए शत्रु के समान हैं, जिन्होंने बच्चों को *अच्छी
शिक्षा नहीं दी। क्योंकि अनपढ़ बालक
का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार
अपमान होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। शिक्षा विहीन मनुष्य बिना पूँछ के जानवर जैसा होता है, इसलिए माता-पिता का
कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वे समाज को सुशोभित करें।
(35)
चाणक्य कहते हैं कि अधिक लाड़ प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यदि वे कोई गलत काम करते हैं तो उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं है। बच्चे को डाँटना भी आवश्यक है।
(36)
शिक्षा और अध्ययन की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत सौभाग्य से मिलता है, इसलिए हमें अपने अधिकाधिक समय का वे*दादि शास्त्रों के अध्ययन में तथा दान जैसे अच्छे कार्यों में ही सदुपयोग करना चाहिए।
(37)
जिस प्रकार पत्नी के वियोग का दुख, अपने भाई-बंधुओं से प्राप्त अपमान का दुख असहनीय होता है, उसी प्रकार कर्ज से दबा व्यक्ति भी हर समय दुखी रहता है। दुष्ट राजा की सेवा में रहने वाला नौकर भी दुखी रहता है। निर्धनता का अभिशाप भी मनुष्य कभी नहीं भुला पाता। इनसे व्यक्ति की आत्मा अंदर ही अंदर
जलती रहती है।
(38)
चाणक्य के अनुसार नदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है,
क्योंकि
नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के
पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी
प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक
सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं
करना चाहिए।
(39)
चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है। उसी तरह
जब राजा
शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा उसका साथ
छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले
पक्षी भी
तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं।
अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया
जाता है तो वह भी उस घर को छोड़
देता है।
(40)
बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता
है। आचार्य चाणक्य का कहना है मनुष्य को कुसंगति
से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि मनुष्य की भलाई इसी में
है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे।
(41)
चाणक्य कहते हैं कि मित्रता, बराबरी वाले व्यक्तियों में ही करना ठीक रहता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है और अच्छे व्यापार के लिए व्यवहारकुशल होना आवश्यक है। इसी तरह सुंदर व सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।
(42)
अगर आप पर ओर आपके परिवार पर घोर
विपता आ जाये और तुमसे खुद भगवान आके कह दे
कि अगर तुम अपनी जान दो तौ तुम्हारा सारा परिवार बच सकता हैँ..ओर तुम जिना चाहते हो तो तुम्हारा सारे परिवार को जान देनी
होगी..तो सारे परिवार की जान जाने दो ओर खुद बच
जाओ क्योंकी ॥जान है तो जहानं है॥ चाणक्य विचार
(43)
चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार
होता है। इसलिए माता-पिता का
कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे
मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
No comments:
Post a Comment