Kalidas Life History in Hindi
कालिदास संस्कृत भाषा के सबसे महान
कवि और नाटककार थे। कालिदास नाम का शाब्दिक अर्थ है,
"काली का सेवक"। कालिदास शिव के भक्त थे। उन्होंने भारत की
पौराणिक कथाओं
और दर्शन
को आधार बनाकर रचनाएं की। कलिदास
अपनी अलंकार
युक्त सुंदर सरल और मधुर भाषा के
लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके ऋतु वर्णन अद्वितीय हैं और उनकी उपमाएं बेमिसाल। संगीत
उनके साहित्य का प्रमुख अंग है और रस का सृजन करने में उनकी कोई उपमा नहीं।
उन्होंने अपने शृंगार रस
प्रधान साहित्य में भी साहित्यिक
सौन्दर्य के साथ साथ आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है।
उनका नाम अमर है और उनका स्थान वाल्मीकि
और व्यास की परम्परा में है।
समय
कालिदास के जीवनकाल के बारे में थोड़ा विवाद है। अशोक और अग्निमित्र
के शासनकाल से प्राप्त दस्तावेजों के
अनुसार, कालिदास का जीवनकाल पहली शताब्दी से तीसरी
शताब्दी ईसा पूर्व के बीच माना जाता है। कालिदास ने द्वितीय शुंग शासक अग्निमित्र को नायक बनाकर मालविकाग्निमित्रम्
नाटक लिखा। अग्निमित्र ने १७० ईसापू्र्व
में शासन किया था, अतः कालिदास
का जीवनकाल
इसके बाद माना जाता है। भारतीय परम्परा में कालिदास और विक्रमादित्य
से जुड़ी कई कहानियां हैं। इन्हें
विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माना जाता है। इतिहासकार कालिदास को गुप्त शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और उनके उत्तराधिकारी कुमारगुप्त
से जोड़ते हैं, जिनका शासनकाल चौथी शताब्दी में था। ऐसा माना जाता है
कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य
की उपाधि ली और उनके शासनकाल को स्वर्णयुग
माना जाता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि
कालिदास ने शुंग राजाओं
के छोड़कर अपनी रचनाओं में अपने
आश्रयदाता या किसी साम्राज्य का उल्लेख नहीं किया। सच्चाई तो यह है कि उन्होंने पुरुरवा और उर्वशी पर आधारित अपने नाटक का नाम विक्रमोर्वशीयम्
रखा। कालिदास ने किसी गुप्त शासक का
उल्लेख नहीं किया। विक्रमादित्य नाम के कई शासक हुए, संभव है कि कालिदास इनमें से किसी एक के दरबार में कवि
रहे हों।
अधिकांश विद्वानों का मानना है कि कालिदास शुंग वंश के शासनकाल में थे, जिनका शासनकाल १०० सदी ईसापू्र्व था।
परम्परा के अनुसार कालिदास उज्जयनी के उन राजा विक्रमादित्य के समकालीन हैं जिन्होंने ईसा से 57
वर्ष पूर्व विक्रम संवत् चलाया।
विक्रमोर्वशीय के नायक पुरुरवा के नाम का विक्रम में परिवर्तन से इस तर्क को बल मिलता है कि कालिदास उज्जयनी के
राजा विक्रमादित्य के राजदरबारी कवि थे।
अग्निमित्र, जो
मालविकाग्निमित्र नाटक का नायक है, कोई
सुविख्यता राजा नहीं था, इसीलिए कालिदास
ने उसे विशिष्टता प्रदान नहीं की। उनका काल ईसा से दो शताब्दी पूर्व का है और विदिशा उसकी
राजधानी थी। कालिदास के द्वारा इस कथा के चुनाव और मेघदूत में एक प्रसिद्ध राजा की
राजधानी के रूप में उसके उल्लेख से यह निष्कर्ष निकलता है कि कालिदास
अग्निमित्र के समकालीन थे।
यह स्पष्ट है कि कालिदास का उत्कर्ष अग्निमित्र के बाद (150 ई.पू.) और 634 ई. पूर्व तक रहा है, जो कि प्रसिद्ध ऐहोल के शिलालेख की तिथि है, जिसमें कालिदास का महान् कवि के रूप में
उल्लेख है। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाए कि माण्डा की कविताओं या 473
ई. के शिलालेख में
कालिदास के लेखन की जानकारी का
उल्लेख है, तो उनका काल चौथी शताब्दी
के अन्त के
बाद का नहीं हो सकता।
अश्वघोष के बुद्धचरित और कालिदास की कृतियों में समानताएं हैं। यदि अश्वघोष कालिदास के ऋणी
हैं तो कालिदास का काल प्रथम शताब्दी ई. से पूर्व का है और यदि कालिदास अश्वघोष के ऋणी हैं तो
कालिदास का काल ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद ठहरेगा।
ऐसी मान्यता है कि कालिदास गुप्त काल के थे और वे उन चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्य में
थे जिन्हें विक्रमादित्य’ की
पदवी प्राप्त थी, वे 345 ई. में सत्ता में आए और उन्होंने 414 ई. तक शासन किया। हम कोई भी तिथि स्वीकार करें, वह हमारा उचित अनुमान भर है और इससे अधिक कुछ
नहीं।
जीवनी
कालिदास शक्लो-सूरत से सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों
में एक थे। लेकिन कहा जाता है कि
प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे। कालिदास की शादी विद्योत्तमा नाम की
राजकुमारी से हुई। ऐसा कहा जाता है कि विद्योत्तमा ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई
उसे शास्त्रार्थ
में हरा देगा, वह उसी के साथ शादी करेगी। जब विद्योत्तमा ने
शास्त्रार्थ में
सभी विद्वानों को हरा दिया तो अपमान से दुखी कुछ विद्वानों ने कालिदास से उसका शास्त्रार्थ
कराया। विद्योत्तमा मौन शब्दावली में गूढ़ प्रश्न पूछती थी, जिसे कालिदास अपनी बुद्धि से मौन संकेतों से ही जवाब
दे देते थे। विद्योत्तमा
को लगता था कि कालिदास गूढ़ प्रश्न का गूढ़ जवाब दे रहे हैं।
उदाहरण के लिए विद्योत्तमा ने
प्रश्न के रूप में खुला हाथ दिखाया तो कालिदास को लगा कि यह थप्पड़ मारने की धमकी दे रही है।
उसके जवाब में कालिदास ने घूंसा दिखाया तो विद्योत्तमा को लगा कि वह कह रहा है कि पाँचों इन्द्रियाँ
भले ही अलग हों, सभी एक मन के
द्वारा संचालित हैं। विद्योत्तमा और कालिदास का विवाह हो गया तब विद्योत्तमा को सच्चाई
का पता चला कि कालिदास अनपढ़ हैं। उसने कालिदास को धिक्कारा और यह कह कर घर से निकाल दिया कि
सच्चे पंडित बने बिना घर वापिस नहीं आना। कालिदास ने सच्चे मन से काली देवी की आराधना की और उनके आशीर्वाद से वे
ज्ञानी और धनवान बन गए। ज्ञान प्राप्ति के बाद जब वे घर लौटे तो उन्होंने दरवाजा
खड़का कर कहा - कपाटम् उद्घाट्य सुन्दरी (दरवाजा खोलो, सुन्दरी)। विद्योत्तमा ने चकित होकर कहा -- अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः (कोई विद्वान लगता है)।
कालिदास ने विद्योत्तमा को अपना पथप्रदर्शक गुरू माना और उसके इस वाक्य को उन्होंने अपने
काव्यों में जगह दी। कुमारसंभवम्
का प्रारंभ होता है- अस्त्युत्तरस्याम्
दिशि… से, मेघदूतम् का पहला शब्द है- कश्चित्कांता…, और रघुवंशम् की शुरुआत होती है- वागार्थविव… से।
कालिदास के जन्मस्थान के बारे में भी विवाद है, लेकिन उज्जैन के प्रति उनकी विशेष प्रेम को देखते हुए
लोग उन्हें उज्जैन का निवासी मानते हैं। कहते हैं कि कालिदास की श्रीलंका में हत्या कर दी गई थी।
रचनाएं
चूंकि कालिदास ने अपने बारे में बहुत कम कहा है अतः उन अनेक रचनाओं के बारे में जो उनकी मानी
जाती हैं, निश्चय कुछ नहीं कहा
जा सकता। फिर भी, निम्नलिखित
रचनाओं के संबंध में आम सहमति यह है कि वे कालिदास की हैं :
1. अभिज्ञान शांकुतल : सात अंकों का नाटक जिसमें दुष्यन्त और शकुन्तला के प्रेम और विवाह का
वर्णन है।
2. विक्रमोर्वशीय : पांच
अंकों का नाटक जिसमें पुरुरवा और उर्वशी के प्रेम और विवाह का वर्णन है।
3. मालविकाग्निमित्र : पांच अंकों का नाटक जिसमें मालिविका और अग्निमित्र के प्रेम का वर्णन है।
4. रघुवंश : उन्नीस सर्गों का महाकाव्य जिसमें सूर्यवंशी
राजाओं के जीवन चरित्र हैं।
5. कुमारसंभव :
सत्रह सर्गों का महाकाव्य जिसमें शिव और
पार्वती के विवाह और कुमार के जन्म का वर्णन है जो युद्ध के देवता हैं।
6 मेघदूत : एक सौ ग्यारह छन्दों1 की कविता जिसमें यक्ष द्वारा अपनी पत्नी को मेघ द्वारा
पहुंचाए गए संदेश का वर्णन है।
7. ऋतुसंहार :
इसमें ऋतुओं का वर्णन है।
नाटक
कालिदास के प्रमुख नाटक हैं- मालविकाग्निमित्रम्
(मालविका और अग्निमित्र), विक्रमोर्वशीयम्
(विक्रम और उर्वशी), और अभिज्ञान
शाकुन्तलम् (शकुंतला की
पहचान)।
मालविकाग्निमित्रम्
कालिदास की पहली रचना है, जिसमें राजा अग्निमित्र की कहानी है।
अग्निमित्र एक
निर्वासित नौकर की बेटी मालविका के चित्र के प्रेम करने लगता है। जब अग्निमित्र की पत्नी को
इस बात का पता चलता है तो वह मालविका को जेल में डलवा देती है। मगर संयोग से मालविका राजकुमारी
साबित होती है, और उसके प्रेम-संबंध को स्वीकार
कर लिया जाता है।
अभिज्ञान
शाकुन्तलम् कालिदास की दूसरी
रचना है जो उनकी जगतप्रसिद्धि का कारण बना। इस नाटक का अनुवाद अंग्रेजी और जर्मन के अलावा दुनिया के
अनेक भाषाओं में हुआ है। इसमें राजा दुष्यंत की कहानी है जो वन में एक परित्यक्त ऋषि
पुत्री शकुन्तला (विश्वामित्र
और मेनका
की बेटी) से प्रेम करने लगता है। दोनों
जंगल में गंधर्व विवाह
कर लेते हैं। राजा दुष्यंत अपनी राजधानी
लौट आते हैं। इसी बीच ऋषि दुर्वासा शकुंतला को शाप दे देते हैं कि जिसके वियोग
में उसने ऋषि का अपमान किया वही उसे भूल जाएगा। काफी क्षमाप्रार्थना के बाद ऋषि ने
शाप को थोड़ा नरम करते हुए कहा कि राजा की अंगूठी उन्हें दिखाते ही सब कुछ याद आ जाएगा। लेकिन राजधानी जाते हुए
रास्ते में वह अंगूठी खो जाती है। स्थिति तब और गंभीर हो गई जब शकुंतला को पता चला कि वह
गर्भवती है। शकुंतला लाख गिड़गिड़ाई लेकिन राजा ने उसे पहचानने से इनकार कर
दिया। जब एक मछुआरे ने वह अंगूठी दिखायी तो राजा को सब कुछ याद आया और राजा
ने शकुंतला को अपना लिया। शकुंतला शृंगार रस से भरे सुंदर काव्यों का एक अनुपम नाटक है। कहा जाता है काव्येषु नाटकं
रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला (कविता के अनेक रूपों में अगर सबसे सुन्दर नाटक है तो
नाटकों में सबसे अनुपम शकुन्तला है।)
कालिदास का नाटक विक्रमोर्वशीयम बहुत रहस्यों भरा है। इसमें पुरूरवा
इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी से प्रेम करने लगते हैं। पुरूरवा के प्रेम को
देखकर उर्वशी भी उनसे प्रेम करने लगती है। इंद्र की सभा में जब उर्वशी नृत्य करने जाती है तो
पुरूरवा से प्रेम के कारण वह वहां अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती है। इससे इंद्र
गुस्से में उसे शापित कर धरती पर भेज देते हैं। हालांकि, उसका प्रेमी अगर उससे होने वाले पुत्र को देख ले तो वह फिर
स्वर्ग लौट सकेगी। विक्रमोर्वशीयम् काव्यगत सौंदर्य और शिल्प से भरपूर है।
महाकाव्य
इन नाटकों के अलावा कालिदास ने दो महाकाव्यों
और दो गीतिकाव्यों
की भी रचना की। रघुवंशम् और कुमारसंभवम्
उनके महाकाव्यों के नाम है। रघुवंशम्
में सम्पूर्ण रघुवंश के राजाओं की गाथाएँ हैं, तो कुमारसंभवम् में शिव-पार्वती की प्रेमकथा और कार्तिकेय
के जन्म की कहानी है।
मेघदूतम् और ऋतुसंहारः
उनके गीतिकाव्य हैं। मेघदूतम् में एक
विरह-पीड़ित निर्वासित यक्ष एक मेघ से अनुरोध करता है कि वह उसका संदेश अलकापुरी
उसकी प्रेमिका तक लेकर जाए, और मेघ को रिझाने के लिए रास्ते में पड़ने वाले सभी अनुपम दृश्यों
का वर्णन करता है। ऋतुसंहार में सभी ऋतुओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का विस्तार से वर्णन
किया गया है।
अन्य
इनके अलावा कई छिटपुट रचनाओं का श्रेय कालिदास को दिया
जाता है, लेकिन विद्वानों का मत
है कि ये रचनाएं अन्य कवियों ने कालिदास के नाम से की। नाटककार और कवि के अलावा कालिदास ज्योतिष के भी विशेषज्ञ माने जाते हैं। उत्तर
कालामृतम् नामक ज्योतिष
पुस्तिका की रचना का श्रेय कालिदास को दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि काली देवी की पूजा से
उन्हें ज्योतिष का ज्ञान मिला। इस पुस्तिका में की गई भविष्यवाणी सत्य साबित
हुईं।
कालिदास की अन्य रचनाएं
- श्रुतबोधम्
- श्रृंगार तिलकम्
- श्रृंगार रसाशतम्
- सेतुकाव्यम्
- कर्पूरमंजरी
- पुष्पबाण विलासम्
- श्यामा दंडकम्
- ज्योतिर्विद्याभरणम्
काव्य सौन्दर्य
कालिदास अपनी विषय-वस्तु देश की सांस्कृतिक विरासत से लेते हैं और उसे वे अपने उद्देश्य की
प्राप्ति के अनुरूप ढाल देते हैं। उदाहरणार्थ, अभिज्ञान शाकुन्तल की कथा में शकुन्तला चतुर, सांसारिक युवा नारी है और दुष्यन्त स्वार्थी
प्रेमी है। इसमें कवि तपोवन की कन्या में प्रेमभावना के प्रथम प्रस्फुटन से लेकर वियोग, कुण्ठा आदि की अवस्थाओं में से होकर उसे उसकी समग्रता तक दिखाना
चाहता है। उन्हीं के शब्दों में नाटक में जीवन की विविधता होनी चाहिए और उसमें विभिन्न रुचियों
के व्यक्तियों के लिए सौंदर्य और माधुर्य होना चाहिए।
त्रैगुण्योद्भवम् अत्र लोक-चरितम् नानृतम् दृश्यते।
नाट्यम् भिन्न-रुचेर जनस्य बहुधापि एकम् समाराधनम्।।
नाट्यम् भिन्न-रुचेर जनस्य बहुधापि एकम् समाराधनम्।।
कालिदास के जीवन के बारे में हमें विशेष जानकारी नहीं है। उनके नाम के बारे में अनेक
किवदन्तियां प्रचलित हैं जिनका कोई ऐतिहासिक मूल्य नहीं है। उनकी कृतियों से यह विदित होता है कि वे ऐसे
युग में रहे जिसमें वैभव और सुख-सुविधाएं थीं। संगीत तथा नृत्य और चित्र-कला से
उन्हें विशेष प्रेम था। तत्कालीन ज्ञान-विज्ञान, विधि और दर्शन-तंत्र तथा संस्कारों का उन्हें विशेष ज्ञान था।
उन्होंने भारत की व्यापक यात्राएं कीं और वे हिमालय से कन्याकुमारी तक देश की भौगोलिक स्थिति
से पूर्णतः परिचित प्रतीत होते हैं। हिमालय के अनेक चित्रांकन जैसे विवरण और केसर की क्यारियों के
चित्रण (जो कश्मीर में पैदा होती है) ऐसे हैं जैसे उनसे उनका बहुत निकट का परिचय
है।
जो बात यह महान कलाकार अपनी लेखिनी के स्पर्श मात्र से कह जाता है। अन्य अपने विशद वर्णन के
उपरांत भी नहीं कह पाते। कम शब्दों में अधिक भाव प्रकट कर देने और कथन की स्वाभाविकता के लिए कालिदास
प्रसिद्ध हैं। उनकी उक्तियों में ध्वनि और अर्थ का तादात्मय मिलता है। उनके शब्द-चित्र सौन्दर्यमय और सर्वांगीण
सम्पूर्ण हैं, जैसे – एक पूर्ण गतिमान राजसी रथ (विक्रमोर्वशीय,
1.4), दौड़ते हुए मृग-शावक (अभिज्ञान-शाकुन्तल,
1.7), उर्वशी का फूट-फूटकर आंसू बहाना (विक्रमोर्वशीय,
छन्द 15), चलायमान कल्पवृक्ष की भांति अन्तरिक्ष में नारद का प्रकट होना (विक्रमोर्वशीय,
छन्द 19), उपमा और रूपकों
के प्रयोग में वे सर्वोपरि हैं।
सरसिजमनुविद्धं शैवालेनापि रम्यं
मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मीं तनोति।
इयमिधकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी
किमिह मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्।।
‘कमल यद्यपि शिवाल में लिपटा है, फिर भी सुन्दर है। चन्द्रमा का कलंक, यद्यपि काला है, किन्तु उसकी सुन्दरता बढ़ाता है। ये जो पतली कन्या है,
इसने यद्यपि वल्कल-वस्त्र धारण किए हुए
हैं तथापि वह और सुन्दर दिखाई दे रही है। क्योंकि सुन्दर रूपों को क्या सुशोभित नहीं कर
सकता ?’
कालिदास की रचनाओं में सीधी उपदेशात्मक शैली नहीं है अपितु प्रीतमा पत्नी के विनम्र निवेदन
सा मनुहार है। मम्मट कहते हैं : ‘कान्तासम्मिततयोपदेशायुजे।’ उच्च आदर्शों के कलात्मक प्रस्तुतीकरण से कलाकार हमें उन्हें अपनाने को विवश करता है।
हमारे समक्ष जो पात्र आते हैं हम उन्हीं के अनुरूप जीवन में आचरण करने लगते हैं और
इससे हमें व्यापक रूप में मानवता को समझने में सहायता मिलती है।
एक महान् सांस्कृतिक विरासत पर कालिदास के समृद्ध एवं उज्जवल व्यक्तित्व की छाप है और उन्होंने
अपनी रचनाओं में मोक्ष, व्यवस्था
और प्रेम के आदर्शों
को अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने व्यक्ति को संसार के दु:ख-दर्द और संघर्षों से अवगत कराने
के लिए, प्रेम-वासना, इच्छा-आकांक्षा, आशा-स्वप्न, सफलता विफलता आदि को अभिव्यक्ति दी है। भारत ने जीवन को अपनी समग्रता में देखा है और उसमें किसी
भी विखण्डन का विरोध किया है।
कवि ने उन मानसिक द्वन्द्वों का वर्णन किया है जो आत्मा को विभक्त करते हैं और इस तरह उन्होंने
इसे समग्रता में देखने में हमारी सहायता की है।
कालिदास की रचनाओं में हमारे लिए सौंदर्य के क्षण, साहसिक घटनाएं, त्याग के दृश्य और मानव मन की नित-नित बदलती मनः स्थितियों
के रूप संरक्षित हैं। उनकी कृतियां मानव प्रारब्ध के वर्णनातीत चित्रण के
लिए सदैव पढ़ी जाती रहेंगी क्योंकि कोई महान् कवि ही ऐसी प्रस्तुतियां दे सकता है। उनकी अनेक पंक्तियां संस्कृत में
सूक्तियां बन गई हैं। उनकी मान्यता है कि हिमालय क्षेत्र में विकसित संस्कृति विश्व की
संस्कृतियों की मापदण्ड हो सकती है। यह संस्कृति मूलतः आध्यात्मिक है। हम सभी सामान्यतः
समय-चक्र में कैद हैं
और इसीलिए हम अपने अस्तित्व की संकीर्ण सीमाओं में घिरे हैं। अतः हमारा उद्देश्य अपने मोहजालों
से मुक्त होकर चेतना के उस सत्य को पाने का होना चाहिए जो देश-काल से परे है जो अजन्मा,
चरम और कालातीत है। हम इसका चिंतन नहीं कर सकते, इसे वर्गों, आकारों और शब्दों में विभाजित नहीं कर सकते। इस चरम सत्य की अनुभूति का
ज्ञान ही मानव का उद्देश्य है। रघुवंश के इन शब्दों को देखिए - ‘ब्रह्माभूयम् गतिम् अजागम्।’ ज्ञानीपुरुष कालातीत परम सत्य के
जीवन को प्राप्त होते हैं।
वह जो चरम सत्य है सभी अज्ञान से परे है और वह आत्मा और पदार्थ के विभाजन से ऊपर है। वह
सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और
सर्वशक्तिमान है। वह अपने को तीन रूपों में व्यक्त करता है (त्रिमूर्ति) ब्रह्मा,
विष्णु और शिव – कर्त्ता, पालक तथा संहारक। ये देव समाज पद वाले हैं आम जीवन में कालिदास शिवतंत्र के उपासक हैं।
तीनों 1.अभिज्ञान शाकुन्तला,
1.17 नाटकों – अभिज्ञान शाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र – की आरम्भिक प्रार्थनाओं से प्रकट होता है कि कालिदास शिव-उपासक
थे। देखिए रघुवंश के आरम्भिक श्लोक में :
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती-परमेश्वरौ।
यद्यपि कालिदास परमात्मा के शिव रूप के उपासक हैं तथापि उनका दृष्टिकोण किसी भी प्रकार संकीर्ण
नहीं है। परम्परागत हिन्दू धर्म के प्रति उनका दृष्टिकोण उदार है। दूसरों के विश्वासों को
उन्होंने सम्मान की दृष्टि से देखा। कालिदास की सभी धर्मों के प्रति सहानुभूति है और
वे दुराग्रह और धर्मान्धता से मुक्त हैं। कोई भी व्यक्ति वह मार्ग चुन सकता है जो अच्छा लगता है क्योंकि अन्ततः
ईश्वर के विभिन्न रूप एक ही ईश्वर के विभिन्न रूप हैं जो सभी रूपों में निराकार है।
कालिदास पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानते हैं। यह जीवन में पूर्णता के मार्ग की एक अवस्था है।
जैसे हमारा वर्तमान जीवन पूर्व कर्मों का फल है वैसे ही हम इस जन्म में प्रयासों से अपना
भविष्य सुधार सकते हैं। विश्व पर सदाचार का शासन है। विजय अन्ततः अच्छाई की होगी। यदि
कालिदास की रचनाएं दुखान्त नहीं हैं तो उसका कारण यह कि वे सामंजस्य और शालीनता के अन्तिम सत्य को स्वीकारते हैं।
इस मान्यता के अन्तर्गत वे अधिकांश स्त्री-पुरुषों के दुःख-दर्दों के प्रति हमारी सहानुभूति को
मोड़ देते हैं।
कालिदास की रचनाओं से इस गलत धारणा का निराकरण हो जाता है कि हिन्दू मस्तिष्क ने ज्ञान-ध्यान
पर अधिक ध्यान दिया और सांसारिक दुःख-दर्दों की उन्होंने अवहेलना की। कालिदास के अनुभव का
क्षेत्र व्यापक था। उन्होंने जीवन, लोक,
चित्रों और फूलों में समान आनन्द लिया।
उन्होंने मानव को सृष्टि (ब्रह्माण्ड) और धर्म की शक्तियों से अलग करके नहीं
देखा। उन्हें मानव के सभी प्रकार के दुःखों, आकांक्षाओं, क्षणिक खुशियों और अन्तहीन आशाओं का ज्ञान था।
वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – मानव जीवन के चार पुरुषार्थों में सामंजस्य के पोषक थे।
अर्थ पर, जिसमें राजनीति और कला
भी सम्मिलित है धर्म का शासन रहना चाहिए। साध्य और साधन में परस्पर सह-संबंध है। जीवन वैध (मान्य) संबंधों से ही
जीने योग्य रहता है। इन संबंधों को स्वच्छ और उज्जवल बनाना ही कवि का उद्देश्य था।
इतिहास प्राकृतिक तथ्य न होकर नैतिक सत्य है। यह काल-क्रम का लेखा-जोखा मात्र नहीं है। इसका
सार अध्यात्म में निहित है जो आगे की पीढ़ियों को ज्ञान प्रदान करता है। इतिहासकारों को अज्ञान
को भेद कर उस आन्तरिक नैतिक गतिशीलता को आत्मसात करना चाहिए। इतिहास मानव की नैतिक
इच्छा का फल है जिसकी अभिव्यक्तियां स्वतंत्रता और सृजन हैं।
रधुवंश के राजा जन्म से ही निष्कलंक थे। धरती से लेकर समुद्र तक (आसमुद्रक्षितिसानाम्) इनका
व्यापक क्षेत्र में शासन था। इन्होंने धन का संग्रह दान के लिए किया, सत्य के लिए चुने हुए शब्द कहे, विजय की आकांक्षा यश के लिए की और गृहस्थ जीवन पुत्रेष्णा के
लिए रखा। बचपन में शिक्षा, युवावस्था
में जीवन के सुखभोग, वृद्धावस्था
में आध्यात्मिक जीवन और अन्त में योग या ध्यान द्वारा शरीर का त्याग किया।
राजाओं ने राजस्व की वसूली जन-कल्याण के लिए की, ‘प्रजानाम् एवं भूत्यार्थम्’ जैसे सूर्य जल लेता है और उसे सहस्रगुणा करके लौटा
देता है। राजाओं
का लक्ष्य धर्म और न्याय होना चाहिए। राजा ही प्रजा का सच्चा पिता है, वह उन्हें शिक्षा देता है, उनकी रक्षा करता है और उन्हें जीविका प्रदान करता है जबकि उनके माता-पिता
केवल उनके भौतिक जन्म के हेतु हैं। राजा अज के राज्य में प्रत्येक व्यक्ति यही मानता था
कि राजा उनका व्यक्तिगत मित्र है।
शाकुन्तलं में तपस्वी राजा से कहता है : ‘आपके शस्त्र त्रस्त और पीड़ितों की रक्षा के लिए हैं न कि निर्दोषों
पर प्रहार के लिए।’ ‘आर्त त्राणाय वाह शस्त्रम् न
प्रहारतुम् अनगसि।’ दुष्यन्त एवं
शकुन्तला का पुत्र भरत, जिसके नाम पर इस
देश का नाम भारत पड़ा है, सर्वदमन
भी कहलाता है – यह केवल इसलिए नहीं कि
उसने केवल भयानक वन्य पशुओं पर विजयी पायी अपितु उसमें आत्मसंयम भी था। राजा के लिए आत्मसंयम भी
अनिवार्य है।
रघुवंश में अग्निवर्ण दुराचारी हो जाता है। उसके अन्तःपुर में इतनी अधिक नारियां हैं कि वह उनका
सही नाम तक नहीं जान पाता। उसे क्षय हो जाता है और उस अवस्था में भी भोग का आनन्द नहीं छोड़ पाता
और उसकी मृत्यु हो जाती है। शालीन मानव-जीवन के लिए संयम अनिवार्य है। कालिदास
कहते है : ‘हे कल्याणी,
खान से निकलने के उपरांत भी कोई भी रत्न
स्वर्ण में नहीं जड़ा जाता, जब
तक उसे
तराशा नहीं जाता।’
यद्यपि कालिदास की कृतियों में तप को भव्यता प्रदान की गई है और साधु और तपस्वियों को पूजनीय
रूप में प्रस्तुत किया गया है, तथापि
कहीं भी भिक्षापात्र
की सराहना नहीं की गई।
धर्म के नियम जड़ एवं अपरिवर्तनीय नहीं हैं। परम्परा को अपनी अन्तर्दृष्टि और ज्ञान
से सही अर्थ दिया जाना चाहिए। परम्परा और व्यक्तिगत अनुभव एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां हमें एक ओर
अतीत विरासत में मिला है वहीं हम दूसरी ओर भविष्य के न्यासधारी (ट्रस्टी) हैं। अपने
अन्तिम विश्लेषण में प्रत्येक को सही आचरण के लिए अपने अन्तःकरण में झांकना चाहिए। भगवतगीता के आरम्भिक अध्याय में जब
अर्जुन क्षत्रिय होने के नाते समाज द्वारा आरोपित युद्ध करने के अपने दायित्व से मना करते हैं
और जब सुकरात कहते हैं, ‘एथेंसवासियों !
मैं ईश्वर की आज्ञा का पालन करूंगा,
तुम्हारी आज्ञा का
नहीं।’ तो वे ऐसा अपनी अर्न्तात्मा के निर्देश पर कहते हैं न
कि किसी बंधे-बंधाए
नियमों के अनुपालन के कारण। आरम्भिक वैदिक साहित्य में जड़-चेतन की एकरूपता का निरूपण
है और अनेक वैदिक देवी-देवता प्रकृति के प्रमुख पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आत्मज्ञान
की खोज में प्रकृति की शरण में जाने, हिमश्रृंगों
पर जाने या तपोवन में जाने का शिकार बहुत प्राचीन काल से हमारे यहां विद्यमान रहा है। मानव के रूप
में हमारी जड़े प्रकृति में हैं और हम नाना रुपों में इसे जीवन में देखते हैं। रात
और दिन, ऋतु-परिवर्तन – ये सब मानव-मन के परिवर्तन, विविधता और चंचलता के प्रतीक हैं। कालिदास के लिए
प्रकृति यन्त्रवत और निर्जीव नहीं है। इसमें एक संगीत है। कालिदास के पात्र पेड़-पौधों, पर्वतों तथा नदियों के प्रति संवेदनशील हैं और पशुओं के प्रति
उनमें भ्रात भावना है। हमें उनकी कृतियों में खिले हुए फूल, उड़ते पक्षी और उछलते-कूदते पशुओं के वर्मन दिखाई देते
हैं। रघुवंश
में हमें गाय के प्रेम का अनुपम वर्णन मिलता है। ऋतुसंहार में षट ऋतुओं का हृदयस्पर्शी
विवरण है। ये विवरण केवल कालिदास के प्राकृतिक-सौन्दर्य के प्रति उनकी दृष्टि को नहीं
अपितु मानव-मन के विविध रूपों और आकांक्षाओं की समझ को भी प्रकट करते हैं।
कालिदास के लिए नदियों, पर्वतों,
वन-वृक्षों में चेतन व्यक्तित्व है जैसा
कि पशुओं और देवों में है।
शाकुन्तला प्रकृति की कन्या है। जब उसे उसकी अमानुषी मां मेनका ने त्याग दिया तो आकाशगामी
पक्षियों ने उसे उठाया और तब तक उसका पालन-पोषण किया जब तक कि कण्ठ ऋषि आश्रम में उसे नहीं ले गए।
शकुन्तला ने पौधों को सींचा, उन्हें
अपने साथ-साथ बढ़ते देखा और जब उनके ऊपर फल-फूल आए तो ऐसे अवसरों को उसने उत्सवों की भांति
मनाया। शाकुन्तला के विवाह के अवसर पर वृक्षों ने उपहार दिए, वनदेवियों ने पुष्प-वर्षा की, कोयलों ने प्रसन्नता के गीत गाए।
शकुंतला की विदाई के समय आश्रम
दुःख से भर उठा। मृगों के मुख से चारा छूट कर गिर पड़ा, मयूरों का नृत्य रुक गया और लताओं ने अपने पत्रों के
रूप में अश्रु
गिराए।
सीता के परित्याग के समय मयूरों ने अपना नृत्य एकदम बन्द कर दिया, वृक्षों ने अपने पुष्प झाड़ दिए और मृगियों ने
आधे चबाए हुए दूर्वादलों को मुंह से गिरा दिया।
कालिदास कोई विषय चुनते हैं और आँख में उसका एक सजीव चित्र उतार लेते हैं। मानस-चित्रों की
रचना में वे बेजोड़ हैं। कालिदास का प्रकृति का ज्ञान यथार्थ ही नहीं था अपितु सहानुभूति भी था।
उनकी दृष्टि कल्पना से संयुक्त है। कोई भी व्यक्ति तब तक पूर्णतः महिमामण्डित नहीं हो
सकता जब तक कि वह मानव जीवन से इतर जीवन की महिमा और मूल्यों को नहीं जानता। हमें जीवन के समग्र रूपों के प्रति
संवेदना विकसित करनी चाहिए। सृष्टि केवल मनुष्य के लिए नहीं रची गई है।
पुरुष और नारी के प्रेम ने कालिदास को आकर्षित किया और प्रेम के विविध रूपों के चित्रण में
उन्होंने अपनी समृद्ध कल्पना का खुलकर उपयोग किया है। इसमें उनकी कोई सीमाएं नहीं हैं। उनकी नारियों
में पुरुषों की अपेक्षा अधिक आकर्षण है क्योंकि उनमें कालातीत और सार्वभौम गुण हैं
जबकि पुरुष पात्र संवेदना शून्य और अस्थिर बुद्धि हैं। उनकी संवेदना सतही है जबकि नारी का दुःख-दर्द अन्तरतम का
है।
पुरुष में स्पर्धा की भावना और स्वाभिमान उसके कार्यालय, कारखाने या रणक्षेत्र में उपयोगी हो सकते हैं पर उनकी
तुलना नारी के सुसंस्कार, सौन्दर्य
और शालीनता के गुणों से नहीं हो सकती। अपने व्यवस्था और सामंजस्य के प्रेम के कारण नारी
परम्परा (संस्कृति) को जीवित रखती है।
जब कालिदास नारी के सौन्दर्य का वर्णन करते हैं तो वे शास्त्रीय शैली को अपनाते हैं और ऐसा करते
समय वे अपने विवरणों के वासनाजन्य होने या अतिविस्तृत हो जाने का खतरा मोल लेते हैं।
मेघदूत में ‘मेघ’ को ‘यक्ष’ अपनी पत्नी का विवरण (हुलिया)
इस प्रकार देता है :
‘नारियों में वह ऐसी है मानो विधाता ने उसका रचना सर्वप्रथम की है, पतली और गोरी है, दांत पतले और सुन्दर हैं। नीचे के ओष्ठ पके बिम्ब फल (कुंदरू) की भांति लाल है। कमर
पतली है। आँखें उसकी चकित हिरणी जैसी हैं। नाभि गहरी है तथा चाल उसकी नितम्बभार से मन्द और स्तनभार
से आगे की ओर झुकी हुई है।’
कालिदास द्वारा प्रस्तुत की गई नारियों में हमें अनेक रोचक प्रकार दिखाई देते हैं। उनमें से
अनेक को समाज के परम्परागत बहानों और सफाई की आवश्यकता नहीं है। उनके द्वन्द्व और तनावों को सामंजस्य
की आवश्यकता थी। पुरुष संदेहमुक्त अनुभव करते थे और वे पूर्ण सुरक्षित थे।
बहुविवाह उनके लिए आम बात थी, परन्तु कालिदास की नारियां कल्पनाशील और चतुर हैं अतः वे संदेह और अनिश्चय के घेरे में आ
जाती हैं। वे सामान्यतः अस्थिर नहीं हैं परन्तु वे विश्वसनीय, निष्ठावान तथा प्रेममय हैं।
प्रेम के लिए झेली गई कठिनाइयां और यातनाएं प्रेम को और गहन बनाती हैं। मेघदूत में अजविलाप और
रतिविलाप में वियोग की करुणामय मार्मिक अभिव्यक्ति है। प्रेम का संयोग रूप विक्रमोर्वशीय में है।
मालविकाग्निमित्र में रानी को धरिणी कहा गया है क्योंकि वह सब कुछ सहती है। उसमें गरिमा और
सहिष्णुता है। इरावती कामुक, अविवेकी,
शंकालु, अतृप्त और मनमानी करने वाली है। जब राजा ने उसे छोड़कर
मालविका को अपनाया तो वह कठोर शब्दों में शिकायत करती है और कटु शब्दों में
राजा को फटकारती है।
मालविका के प्रति अग्निमित्र का प्रेम इन्द्रिपरक है। राजा दासी की सुन्दरता और लावण्य पर
मोहित है। विक्रमोर्वशीय में पात्रों में दैवी और मानवीय गुणों का मिश्रण है। उर्वशी का चरित्र
सामान्य जीवन से हटकर है। उसमें इतनी शक्ति है कि अदृश्य रूप से वह अपने प्रेमी
को देख सकती है तथा उसकी बातें सुन सकती है। उसमें मातृप्रेम नहीं है क्योंकि वह अपने पति को खोने के स्थान पर अपने
बच्चे का परित्याग कर देती है। उसका प्रेम स्वार्थजन्य है।
पुरुरवा भावविह्वल होकर प्रेम के गीत गाता है जिसका भावार्थ यह है कि विश्व की सत्ता उतनी
आनन्ददायक नहीं जितना प्रेम आनन्ददायक है। विफल प्रेमी के लिए संसार दुःख और निराशा से भरा है और सफल
प्रेमी के लिए वह सुख और आनन्द से भरा है। इस नाटक में हम प्रेम को फलीभूत होते
देखते हैं। इसमें भूमि और आकाश एक होते हैं। भौतिक आकर्षण पर आधारित वासना नैतिक सौन्दर्य
और आध्यात्मिक
ज्ञान में परिवर्तित होती है।
आधुनिककाल में कालिदास
कूडियट्टम्
में संस्कृत आधारित नाटकों का एक रंगमंच है, जहां भास के नाटक खेले जाते हैं। महान कूडियट्टम कलाकार और
नाट्य शास्त्र के विद्वान स्वर्गीय नाट्याचार्य विदुषकरत्तनम पद्मश्री गुरू मणि माधव चक्यार ने कालिदास के नाटकों
के मंचन की शुरूआत की। कालिदास को लोकप्रिय बनाने में दक्षिण भारतीय भाषाओं के फिल्मों का भी काफी
योगदान है। कन्नड़ भाषा की फिल्मों कविरत्न कालिदास और महाकवि कालिदास ने कालिदास
के जीवन को काफी लोकप्रिय बनाया। इन फिल्मों में स्पेशल इफेक्ट और संगीत का बखूबी उपयोग किया गया था। वी शांताराम
ने शकुंतला पर आधारित फिल्म बनायी थी।
ये फिल्म इतनी प्रभावशाली थी कि इसपर आधारित अनेक भाषाओं में कई फिल्में बनाई गई।
हिन्दी लेखक मोहन राकेश
ने कालिदास के जीवन पर एक नाटक आषाढ़ का एक
दिन की रचना की, जो कालिदास के संघर्षशील जीवन के विभिन्न
पहलुओं को दिखाता है। १९७६ में सुरेंद्र वर्मा ने
एक नाटक लिखा, जिसमें इस बात का
जिक्र किया गया है कि पार्वती के शाप के कारण कालिदास कुमारसंभव को पूरा नहीं कर पाए थे।
शिव और पार्वती के गार्हस्थ जीवन का अश्लीलतापूर्वक वर्णन करने के लिए पार्वती ने उन्हें यह शाप दिया था। इस नाटक
में कालिदास को चंद्रगुप्त की अदालत का सामना करना पड़ा, जहां पंडितों और नैतिकतावादियों ने उनपर अनेक आरोप लगाए। इस नाटक में न सिर्फ एक लेखक के
संघर्षशील जीवन को दिखाया गया है, बल्कि
लेखक की अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के महत्व को भी रेखांकित किया गया है।
अस्ति कश्चित वागर्थीयम् नाम से डॉ कृष्ण कुमार ने १९८४
में एक नाटक लिखा, यह नाटक
कालिदास के विवाह की लोकप्रिय कथा पर आधारित है। इस कथा के अनुसार, कालिदास पेड़ की उसी टहनी को काट रहे होते हैं, जिस पर वे बैठे थे। विद्योत्तम से अपमानित दो
विद्वानों ने उसकी शादी इसी कालिदास के करा दी। जब उसे ठगे जाने का अहसास होता
है, तो वो कालिदास को ठुकरा देती है। साथ
ही, विद्योत्तमा ने ये भी कहा कि
अगर वे विद्या और प्रसिद्धि अर्जित कर लौटते हैं तो वह उन्हें स्वीकार कर लेगी। जब कालिदास विद्या और प्रसिद्धि
अर्जित कर लौटे तो सही रास्ता दिखाने के लिए कालिदास ने उन्हें पत्नी न मानकर गुरू मान लिया।
गाथाएं
कालिदास और दंडी
में कौन श्रेष्ठ कवि थे, इस सवाल को दोनों ने माता सरस्वती के सामने रखा। सरस्वती ने जवाब दिया, दंडी। दुखी कालिदास ने पूछा, "तो माँ मैं कुछ भी नहीं"? माता ने जवाब दिया, त्वमेवाहं, यानी तुम और मैं दोनों एक जैसे हैं।
कालिदास के जीवन और रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में उपन्यास कालिदास के जीवन के
परिप्रेक्ष्य में एक उपन्यास की रचना की गई है। मूलतः इसे मलयाळम भाषा में लिखा गया है, लेकिन लेखक ने ही उसका हिन्दी रूपान्तर लिखा है। मलयाळम में इसका
प्रकाशन डीसी बुक्स कोट्टयम द्वारा किया जा रहा है। हिन्दी रूपान्तर के प्रकाशन के संबंध में अभी
तक कुछ निश्चित नहीं हुआ है। उपन्यासकार डॉ.के.सी.अजयकुमार
sonushri
ReplyDeleteSach me kalidas mahan he
DeleteSach me kalidas mahan he
ReplyDeleteKalidas is the great poet.
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